गंगा जयंती विशेष - प्रीति शर्मा ।

- गंगा जयंती विशेष  -

गंगा तेरा घाट

युगों- युगों से यात्रा मेरी,
तेरे साथ- साथ चलती रही।

 जन्मों -जन्मों से गुजर कर ,
तुम पर ही तो आ के थमती रही।

 जिंदगी के एक घाट से,
 मौत के,
 दूसरे घाट तक का सफर।

युगों- युगों से ना बदला है।
 ना बदलेगा ।
जन्मों- जन्मों का यह सफर।

 देखता हूँ....... तेरे  घाट पर ,
 जीवन का अनूठा ही फन।

मां की गोद में रुधन से भरा ।
नन्हीं किलकारी का स्वप्न ।

वो ममता ,
वो प्यार और स्नेह का अंबार।

 जिंदगी के ,
स्वर्णित पलों का आभास ।

 घुटनों के बल चलते,
 सपनों की रंग -बिरंगी,
 तितलियों को पकड़ने को,  
 मचलते मन की फुहार ।

कभी रुठ जाते, जिद्द करते,
 फिर मान जाने के ढंग।

 चिंताओं से मुक्त ,
हवा के झोंके से मुक्त ,
बहते जीवन के पल ।।

फिर समय की लहरों में ,
बचपन खो जाता है ।

पांव दबा के रेत के ,
घर बनाते भोले बचपन को,
जवानी की दहलीज पर ,
महल बनाने का स्वप्न सताता है।

 फिर होड़ की ,
एक दौड़ शुरु होती है ।

इंसान सब पा जाना चाहता है।
हर रंग में खेलकर,
 हर रस पी जाना चाहता है।

 तब सब पा लेने की,
 अमिट लालसा पाता है।

 विषयों की लपटें,
 दिन-रात दुगनी होती हैं।

 इंसान ,
दूसरों को सीढ़ी बना।
अपने मतलब साधता है ।

विषयों का बोझ ढोते हुए।
 पैसा कमाने की होड़ में ,
 दिन-रात खोता है ।

अपना- पराया सब भूलता है।
 धन की हवस में,
 भोला बचपन तो..... क्या
बुढ़ापा भी आएगा यह भूलता है।

 बस अपने लिए ,
अपनों के लिए जीता है ।
दूसरों को मारता- काटता है।

सच- झूठ के ,
कितने ही खेल खेलता है।

 इस दौड़ में कब ,
जवानी बुढ़ापे में बदल गई ।
पता ही नहीं चलता है।

 तब अपने किए कृत्यों का,
 हिसाब नजर आता है।

 वो अपनी जिन्हें अपना,
 समझने का ,
 भ्रम पाले बैठा था।
  कोई अपना नहीं,
  सारे अपने हैं।
 यह एहसास जब आता है।

 अपनी ही दुनिया बसा,
 दुनिया बनाने वाले को
 कब से भूले बैठा था ।

जब याद......... आता है ।
दूसरे ही पल सब छूट जाता है।

 भीतर की ,
आत्मा जब जागती है।
 बाहर की ,
आंख- कान- सांस
बंद हो जाते हैं।

 जीवन के इस घाट पर,
 रंगे सपने दूसरे घाट पर ,
 खुद को ,
 सफेद धुंध को ओढ़े हुए पाते हैं।

 कितना भी ऊंचा उठ जाएं ,
खुद को धरा पर ही पाते हैं।

 सब अपने -सब सपने ,
उस घाट पर रह जाते हैं।

 फिर इस घाट से,
 उस घाट का,
 सफर कब खत्म हो गया ।

पिछले घाट पर,
 छूटा सपनों का महल ।
अंतिम स्नान से ही धुल गया।

 रिश्ते -नाते ,प्यार ,कड़वाहट,
 यादें -बातें सब दिन ।
आग में हवन हो जाते हैं।

 दूसरे घाट पर,
 राख के ढेर के ,
 बादल उड़कर।
 गंगा तेरी ही,
 गोद में शरण पाते हैं।

 तेरे ही प्रवाह में ,
प्रवाहित हो जाते हैं ।

फिर उसी से ,
नवजीवन का प्रवाह पाते हैं।

 युगों- युगों से तुम्हारे घाट ,
जन्मों-जन्मों के ,
जीवन मरण की ,
अमृत कथा सुनाते हैं।


स्वरचित रचना
प्रीति शर्मा "असीम"
नालागढ़ हिमाचल प्रदेश
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Milan Tomic

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