थिरकती - परमजीत कौर ।

ऐ ज़िंदगी ,
ये कैसा मोड़ है ....?
मंज़िल किस ओर है ...?
कहीं जीवन की जद्दो -जहद और भूख से बोझिल चेहरे ,
कहीं दिखावा तो कहीं विवशता का अंधेरा !
मगर , इस मंज़र में हज़ारों आँखें ढूँढती हैं, अपना बसेरा !
ये कैसी पहेली है ...?
कभी तेज़ धूप से धमकाती ,
तो कभी आसमान से बरसती बूंदों में थिरकती,
ढाढ़स  भी बंधाती है ।
आँख बंद की तो ,
हौले से कान में कह जाती है – बस , थोड़ा और सब्र कर !
सुकून से , आँख खोल दी मैंने,
मगर, फिर वही मायूसी !
वही अंधेरा !
कब होगा ...खुशियों का सवेरा ...?

परमजीत कौर
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Milan Tomic

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