शीर्षक– ‘ मैं स्त्री हूॅ॑ '
“मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो ,वैंसा तुम गढ़ दो ।।
हाथों में कमल दो,
या पहना दो चूड़ियाॅ॑ ।।
पाॅ॑व को बढ़ने दो ,
या पहना दो बेड़ियाॅ॑ ।।
मै स्त्री हूॅ॑।
तुम्हारा जैंसा मन हो ,वैंसा तुम गढ़ दो ।।
माॅ॑ग भर सिन्दूर से साज दो ,
या खुला आसमान दो ।।
उड़ने का हुनर दो ,
या हाथों में बेलन पकड़ा दो ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
विश्वास में लेकर,
चाहों तो छल लो ।
या हौसला बढ़ाकर ,
ताली बजा दो ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
प्रेम की सौगात दो,
मन हो तो राधा,नहीं रुक्मणि बना लो ।
या छीन लो मर्द बन ,
अस्मिता को मेरे ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
मातृत्व सुख से साज दो,
या अबला बना दो ।
हाथों की कठपुतली बन लो,
चाहें कलम पकड़ा दो ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैसा मन हो, वैसा तुम गढ़ दो ।।
पर!
बेलन दो,या कलम,
मुझे दोनों का हुनर आता हैं ।
बेड़ियाॅ॑ पहना दो,या खुला आसमां दो,
मुझे दोनों में जीना आता हैं ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
अस्मिता छीनो या फिर छलों,
अबला बनाओ या अबला ।
मुझे जीवन जीने का,
हर अंदाज आता हैं ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
पर सुनो !
मैं खुद को, खुद से, बेहतर जानती हूॅ॑।
तुमसे होकर भी,तुमसे नहीं हूॅ॑,
ये भी तुमसे बेहतर जानती हूॅ॑,
कभी माॅ॑,कभी,बेटी,कभी पत्त्नी,कभी प्रेमिका
तुम्हें देखने का मन हो,
जिस रूप में मुझे ,
तुम देख लो ।।
क्योंकि!
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।"
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश।
“मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो ,वैंसा तुम गढ़ दो ।।
हाथों में कमल दो,
या पहना दो चूड़ियाॅ॑ ।।
पाॅ॑व को बढ़ने दो ,
या पहना दो बेड़ियाॅ॑ ।।
मै स्त्री हूॅ॑।
तुम्हारा जैंसा मन हो ,वैंसा तुम गढ़ दो ।।
माॅ॑ग भर सिन्दूर से साज दो ,
या खुला आसमान दो ।।
उड़ने का हुनर दो ,
या हाथों में बेलन पकड़ा दो ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
विश्वास में लेकर,
चाहों तो छल लो ।
या हौसला बढ़ाकर ,
ताली बजा दो ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
प्रेम की सौगात दो,
मन हो तो राधा,नहीं रुक्मणि बना लो ।
या छीन लो मर्द बन ,
अस्मिता को मेरे ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
मातृत्व सुख से साज दो,
या अबला बना दो ।
हाथों की कठपुतली बन लो,
चाहें कलम पकड़ा दो ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैसा मन हो, वैसा तुम गढ़ दो ।।
पर!
बेलन दो,या कलम,
मुझे दोनों का हुनर आता हैं ।
बेड़ियाॅ॑ पहना दो,या खुला आसमां दो,
मुझे दोनों में जीना आता हैं ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
अस्मिता छीनो या फिर छलों,
अबला बनाओ या अबला ।
मुझे जीवन जीने का,
हर अंदाज आता हैं ।।
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।
पर सुनो !
मैं खुद को, खुद से, बेहतर जानती हूॅ॑।
तुमसे होकर भी,तुमसे नहीं हूॅ॑,
ये भी तुमसे बेहतर जानती हूॅ॑,
कभी माॅ॑,कभी,बेटी,कभी पत्त्नी,कभी प्रेमिका
तुम्हें देखने का मन हो,
जिस रूप में मुझे ,
तुम देख लो ।।
क्योंकि!
मैं स्त्री हूॅ॑ ।
तुम्हारा जैंसा मन हो, वैंसा तुम गढ़ दो ।।"
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश।

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