एक आस - अनिला सिंह आर्य

जल तो आज भी रही है ।
बदकिस्मती को रो रही है ।
सशक्तिकरण का नारा भी है ।
फिर भी अस्मिता को खोज रही है।
इतनी बड़ी बातें आसमान पर लिख दीं ।
वह छोटी सी खुशी के लिए तरस रही है ।
आपने देवी बना देवालयों में सजा दिया ।
लेकिन वह चंद सांसों के लिये दौड़ रही है ।
घर की स्वामिनी आपने कह दिया उसे ।
दो इंच जमीन के लिए वह भटक रही है।
यूँ आसुँओं के बहते सैलाब को जरा रोको ।
अरमानों की अर्थी को वह  ढो रही है ।
कितनी भी योजनाओं का ढिंढोरा हो ।
आज भी वह बदकिस्मती को रो रही है।
उसकी सिसकियों को थामो तो सही ।
इसमें भी वह आपको ही पुकार रही है ।
आवाज को उसकी अनसुना मत करिए ।
उसकी आँखे आपकी ही बाट जोह रही है


अनिला सिंह आर्य
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Milan Tomic

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