शीर्षक–‘ जज़्बात आँखों के'
“आॅ॑खों की सजा ये थी
उसने स्वर्णिम अधेरें को देखा
दृश्य दिखता भी कैसे था, घनघोर अंधेरा
तब उसने कल्पना कि, खुद को खुद में देखपाने की
उन्माद था इतना कि
सारी परमपराएं तोड़ दी
दौड़ती गाड़ियों के बीच
ध्वस्त किया खुद को
किसी को खबर हुई
इस सुलगते हुए ज्वार की
तब बल मिला उसको
झूठ की गुदगुदी भी
अब उसे हॅ॑साने लगी
किन्तु सुनों!
सुबह –शाम वह आने –जाने लगी
डुगडुगी बजाने लगी
उसकी आॅ॑खें खुश थी कि नहीं
यह पता नहीं
पर वह अंधेरें की सजा पाने लगी
इन्सानियत खत्म होते हुए
देख रही थी उसकी आॅ॑खें
बुलेट की रफ्तार से
उसने जो देखा था वह लिखा
और मैंने जो लिखा था वह पढ़ा
यही खता ही
आॅ॑खों की सजा हुईं ।।
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश ।
“आॅ॑खों की सजा ये थी
उसने स्वर्णिम अधेरें को देखा
दृश्य दिखता भी कैसे था, घनघोर अंधेरा
तब उसने कल्पना कि, खुद को खुद में देखपाने की
उन्माद था इतना कि
सारी परमपराएं तोड़ दी
दौड़ती गाड़ियों के बीच
ध्वस्त किया खुद को
किसी को खबर हुई
इस सुलगते हुए ज्वार की
तब बल मिला उसको
झूठ की गुदगुदी भी
अब उसे हॅ॑साने लगी
किन्तु सुनों!
सुबह –शाम वह आने –जाने लगी
डुगडुगी बजाने लगी
उसकी आॅ॑खें खुश थी कि नहीं
यह पता नहीं
पर वह अंधेरें की सजा पाने लगी
इन्सानियत खत्म होते हुए
देख रही थी उसकी आॅ॑खें
बुलेट की रफ्तार से
उसने जो देखा था वह लिखा
और मैंने जो लिखा था वह पढ़ा
यही खता ही
आॅ॑खों की सजा हुईं ।।
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश ।
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