“ लोग ठिठक –ठिठक कर जी रहें हैं, इस कहर त्रासदी में
दसों दिशाओं में ,यमदूत फैले हुए हैं
क्या बूढ़े क्या युवा,क्या राजा क्या रंक
सभी के संग समभाव दिखला रहें हैं
लोग ठिठक– ठिठक कर जी रहें हैं,इस कहर त्रासदी में ।
स्वर्णिम भविष्य की पटकथा में रिक्तता बढ़ रही हैं
न कोई तस्वीर ,न कोई रंग,न कोई सपने,न कोई बात
हो गए हैं सब बदकिस्मत और आशावादी
ऐसा हकीकत में ,मुर्दा समय चल रहा हैं
लोग ठिठक– ठिठक कर जी रहें हैं, इस कहर त्रासदी में ।
नए मौसम का हर कोई, अब पता पूछता हैं
आशा का भाव लिए, देवदूत खोजता हैं
बेरौंनक वक़्त हैं
हर कोई हांफता,चिल्लाता, छिंकता चल रहा हैं
लोग ठिठक– ठिठक कर जी रहें हैं, इस कहर त्रासदी में
न मिलना,न बिछुड़ना,न रूठना,न मानना
न कोई किताबें, न कोई शिकायतें
न धर्म ,न यात्रा, न पिक्चर, न पार्टी
न कोई निदों में सपने हैं अब, ऐसा मुर्दा समय चल रहा हैं
लोग ठिठक– ठिठक कर जी रहें हैं इस कहर त्रासदी में ।"
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
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