शीर्षक – ‘आपस में हैं बोल रहें '
“ कल – कल नदियाॅ॑ ,झरने आपस में थे बोल रहें
नित हम क्यों? सूख रहें ।
तेज हमारा नष्ट हो रहा, अस्तित्व लगा हैं मिटने
नित हम क्यों ? सूख रहें ।
सूर्य उगलता ताप था कल भी
पर ऐसी तपन ना थी
ऐसा क्या ? कर रहा हैं मानव
जो नित हम सुख रहें ।
ये सब बातें पेड़ सुन रहा ,फिर उसने हैं बोला
हें! नदियां ए झरने
आस्तित्व तुम्हारा मुझसे हैं
और मानव मुझको हैं नित काट रहें
तुम क्या कर सकती हो ? दर्द तुम्हारा मुझसे कम हैं
मैं तो तुमसे ही नित उगता हूॅ॑
मुझसे मोह खत्म हो रहा हैं अब
लोगों का थोड़ा –थोड़ा
कल तक तो तुम ही बिकती थी
अब मैं भी बेचा जाता हूॅ॑
कुबेरपति मानव में अब ,ज्ञान ज्योति की ‘लौं ' हैं, नहीं
फिर कैसे देखें अन्धकार ,जो रोशनी में हैं फैल रहा
ये इंसान बना मालिक हैं सबका
बैठा – बैठा हैं बेच रहा
तुम क्या ?
हम क्या?
वह तो खुद को भी, नित थोड़ा – थोड़ा हैं बेच रहा
आस्तित्व तुम्हारा कल भी था
आस्तित्व तुम्हारा आज भी हैं
आगे भी आस्तित्व तुम्हारा ही होगा
पर उस वक़्त करेगा क्या इंसान
जब हम पूरे कट जायेंगें
सोच रहा हूॅ॑ !
क्या ?
मानव भी ऐसे ही, सूख रहा
जैसे तुम नित सूख रही
कल – कल करती नदियाॅ॑ ए झरने
ये सब थे आपस में बोल रहें
नित हम क्यों? सूख रहें।। "
दोहा– ‘ पेड़ बचाओ हें!मानव तुम,आस्तित्व तुम्हारा खतरे में ।
जीवित रहना चाहते हो,तो नित पेड़ लगाओ एक नए ।।'
रेशमा त्रिपाठी (पीएचडी शोधार्थी)
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश

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