गरीबों की सुबह शाम बस बन जाती है रोटियां,
मां बाप की कमाई तो ले जाती है बेटियां ।
रातों में जागे जो मां बाप के दुःख सहे,
फिक्र जिसे अपनी जिंदगी का ना कुछ रहे ।
खड़े खड़े बाजार में वो बिक जाती हैं बेटियां ,
गरीबों की सुबह शाम बस बन जाती है रोटियां ।
मां बाप की कमाई तो ले जाती है बेटियां,
होती है वो जब जवां मां-बाप को होता है शादी का फिराक,
जैसे बिक रहे हो कुर्सी मेज देखने आते हैं खूब ग्राहक ।
आजाये गर पसंद तो कहते हैं वो फुस्साख ,
दहेज में कितना सामान दोगे दोगे, दोगे कितनी पेटियां ।
गरीबों की सुबह शाम बस बन जाती है रोटियां,
मां बाप की कमाई तो ले जाती है बेटियां,
जुल्म ससुरालियों के वो सहे,
फिर भी मुंह से वो कुछ ना कहें ।
ना उसके पांव में पाजेब है ना कानों में बालियां,
नंद और सांस की वो सदा सहती है गालियां ।
तभी तो बंद कमरे में घुट घुट के मर जाती है बेटियां,
गरीबों की सुबह शाम बस बन जाती है रोटियां ।
मां बाप की कमाई तो ले जाती है बेटियां ।
जब मां-बाप ने ही खुद उसे ऐसी सलाख दी,
कुछ दिन गुजरने पर तो पति ने भी तलाक दी ।
चारों ओर से उस गरीब की जिंदगी हलाख की ।
तभी तो आग में जल जल के मर जाती हैं बेटियां, गरीबों की सुबह शाम बस बन जाती है रोटियां ।।
मां बाप की कमाई तो ले जाती है बेटियां,
ना देश में ही कोई पुख्ता कानून है,
ना नारी जाति में ही खुद इतना जुनून है,
वरना इनकी रगों में अब भी वही खून है,
जो खूब मैदानों में लड़ी पर्वतों की जिन्होंने लांघी है चोटियां,
गरीबों की सुबह शाम बस बन जाती है रोटियां,
मां बाप की कमाई तो ले जाती है बेटियां ।
गफ्फार अहमद
रेलवे कर्मचारी, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश ।
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