आम्रपाली (नगरबधू )
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हृदय पीड़ा धरी स्पंदन भरी
गौतमबुद्ध समी राज नर्तकी खड़ी
हु क्या नगरबधु सम्राटो की
अंतर मय वेदना जल रही
क्या मे श्रृंगार लोक भोग्या
बनी हु मे उपभोग मिथ्या
आशाओ की डोर छूटी
कंचन काया की बांध टूटी
आंशू ओ की नमी सुखी
कुलवधू की छवि फूटी
जन हर एक विलासी
ढूँढू इंसान हृदय तलाशी
टूटी फूटी मिली ना मानवीयता
मुखौटे पीछ देखी अमानवीयता
वैषीपन का मेल सारा
सुख़ वैभव का खेल सारा
भष्म हुआ हर वहम वहम
नर्तकी का टुटा भरम भरम
त्यजकर सुख़ सारे कुलवधू संग
शून्य हृदय से रहती सम्राटो संग
त्यजु मे सुख़ सारे वैभव
है भगवान मुझ पावन करो
सप्त भूमि प्रसाद संग
आम्रपाली जिस भवन में रहती थी, उसका नाम सप्तभूमि प्रासाद था। इसकी शोभा अतुलनीय थी। सप्तभूमि प्रासाद में विलास के तमाम साधन मौजूद थे। अपार धन-दौलत के साथ सम्राटों की तरह जीवन जीने की स्वच्छंदता थी। बड़े -बड़े सम्राटों को सप्तभूमि प्रासाद का लाभ मिलता था
एक बार वहां गौतम बुद्ध ने उस स्थान को पावन बनाया, सप्त भूमि प्रसाद मे एक घने पैड के निचे ध्यान लगाया, तभी आम्रपाली वहां अपनी आत्मव्यथा कहती है..
एकएहसास
अलपा मेहता
लेखिका ----

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