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लगी आग लौ फिर बढ़ाने लगे,
सनम फिर हमें याद आने लगे।
उन्हीं से मुहब्बत बहुत है हमें,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे।
कहर ढा रही है जुदाई बहुत,
बिछड़ कर हमें वो सताने लगे।
निगाहें हमारी नहीं फिर उठी,
वो जब से निगाहें मिलाने लगे।
बड़ा चाहते हैं उन्हें हम मगर,
जमाने के डर से छुपाने लगे।
शुक्रिया करूं भी तो कैसे करूं,
रूठ कर हमें वो जलाने लगे।
लबों पर हंसी रोज रहने लगी,
गजल होंठ से गुनगुनाने लगे।
रिचा श्रीवास्तव
अयोध्या, उत्तर प्रदेश ।
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