ग़ज़ल
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ये ज़िंदगी बेरंग सी सदा रही है देख लो
पुकारती जिसे नज़र चुरा रही है देख लो
नकाब में छिपी नियत इंसानियत लुटा रही
कदम-कदम पे असलियत बता रही है देख लो
तमाम हो गये सनम कहीं तेरा पता नहीं
ये मौत मेरी अस्थियाँ दबा रही है देख लो
मज़ा नहीं सज़ा रही ये ज़िंदगी मेरे लिए
यकीं न हो तो आँख क्यूँ रुला रही है देख लो
चले आओ की ज़िंदगी भी ख़त्म हो चली सनम
तुम्हें तड़पती बेबसी बुला रही है देख लो
हमें ये इल्म है तमाम जहर है नशा मगर
फ़िराक़ में शराब ही दवा रही है देख लो
(स्वरचित मौलिक रचना)
लेखिका-
प्रज्ञा देवले
महेश्वर, खरगोन, मध्य प्रदेश ।
वाह बहुत सुंदर
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