मां की चौखट / ‘मां’ - अल्का अस्थाना

मातृ दिवस पर विशेष...

मां की चौखट / ‘मां’

मातृत्व  संसृति की अनूठी उपज है। जहां कि सात स्वरों से मिलते एक शब्द ‘मां’ं है। जहां उसकी गोद ‘मां’ के शब्द को सुनने के लिए आतुर रहती है। प्रेम की पराकाष्ठा और फिर जन्म लेता है, वह पाक़ शब्द । शिशु के रूप में जहां स्त्रीत्व पनप उठता है।ईश्वर ने मां को पूरा करने के लए प्रकृति की ध्वनि को आवाज दिया।

कहते हैं जब  अपने पुत्र के लिए गुहार लगाती दे, तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड  कंपित होने लगता है। मां की कृतज्ञता को पूरा करने के लिए सिर्फ एक दिवस नहीं, एक सदी भी कम पड़ती है । माँ के कर्ज को चुका पाने के लिए कोई भी स्याही उसकी महिमा का बखान नहीं कर सकती है।

मेरा ये अनुपम सौहार्द है कि मुझे मां जैसे विषय पर कुछ लिखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। इस लावण्यता से परिपूर्ण चेहरे को किसी भी शब्द से व्याख्या कर पाना संभव नहीं है। हिन्दू धर्म के देवियों को मां कहकर पुकारा जाता है। 

मां  जीवनदायिनी है संसार में हर जीवनदायिनी वस्तु मां की संज्ञा दी गयी है मां हमें अकले नहीं होने देती संकट की घड़ी में भी वो अपनी शीतल छाँव में रखती है। 

किसी के जीवन में एक माँ पहली और सर्वश्रेष्ठ छवि होती है। वो बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि उसके जैसा सात्विक और सरल रूप पूरे संसार में कभी  भी नहीं मिल पाता। जिस दिन संसार में हम मनुष्य के रूप में जन्म लेते हैं। मां के खुश होने का ठिकाना नहीं होता  है। 

वो हमारे सुख - दुःख का कारण निश्चय ही जान लेती है। मां ही होती है जो  सच में सात्विकता का भाव रखती है। माथे की सिकुड़न परेशानियों को मां स्वयंमेव अपनी भावपूर्ण दृष्टि से पढ़ लेती है निःश्चय ही तुरन्त निराकरण कर लेती है। मां का प्रेम ईश्वर द्वारा प्रदत्त शाश्वत स्नेह की भूमिका निभाता है जो अपने इस गुण से हमेशा आत्मच्युत रहती है। 

वो हमारी बीमारी के दिनों में रात-दिन एक कर देती है। बचपन में हमें अपने अमृत स्तनपान से जीवन प्रदान करती है। 

सारे रिश्तों की दिखावट देखी है। 

उसकी बातों में बुनावट देखी है।

जब-जब मैं गया था परेदस तो,

मां चेहरे पे न थकावट देखी है। 

मां हमारी पहली शिक्षिका होती है। सबसे पहले जब बच्चा बोलना शुरू करता है अपने बाल्यकाल की लीला में मां के नाम का संबोधन हँसते -रोते हुए लेता है। तो सम्पूर्ण संसार को गुंजा देता है। उसके रूदन में मां का स्मरण विछिप्त रहता है ।

ज़ाहिर है मां का औदा ईश्वर के समान होता है। । 

आज की सभ्यता में जिन घरों में मां का तिरस्कार होता है। वहां पर ईश्वर की महिमा नहीं होती । देवता नाराज हो जाते है। उसकी मुस्कुराहट से सम्पूर्ण प्रकृति में पुष्प की सुगंध सी फैल जाती है । घर में शांति हो जाती है। उसकी डांट में भी प्रेम का पुट दिखायी देता है। 

तेरे डिब्बे की रोटियों कहां मिलेंगी।

तेरी  छांव की आहट कहां मिलेगी।

रेशमी सा दुपट्टा डाला मैंने जब,

तेरी गोदी की गर्माहट कहां मिलेगी 

मां तेरी बोली याद आती  है। 

मुझे वो थाली याद आती है। 

स्टोप पे चढ़ी थी कढ़ाई जो,

मुझे वो पकौड़ी याद आती है।   

सीधे-सादे रूप में प्यार है तुम्हें।

पिता को साथ-2 पाया है तुम्हें। 

तुम कसक का शर्बत पीती रही,

ऐसी अनमोल छवि पाया है तुम्हें ।

नवरात्रि में शक्ति की पूजा होती है । जिसने मां के महत्व को दर्शाया गया है। मां वो शक्ति स्वरूपा होती है जो दया का भण्डार रखती है और अपने बच्चांे को हमेशा अपने कलेजे से लगाये रखती है उसके शब्द -शब्द में भगवान का वास होता है। 

आज के इस व्यस्ततम् समय मां के लिए निकाल पाना बच्चों के लिए संभव नहीं हो पा रहा। बच्चे पाश्चात्यता की ओर अग्रसर और परदेश जाकर बस गये जहां अपार्टमेण्ट की संगमरमरी दीवारों में वो संकुचित होते दिखते है।। 

गांव देहात की चैखट व घर की ठकुराइन कहीं जाने वाली मां एक कुठरी में बैठी पाई जाती है। जहां उनकी सलाह देसी संस्कृति के गर्भ में दफन पाई जाती है। मेरा ये प्रश्न समाज के उन लोगों से है जिन्होंने अपनी जीवन शैली में अपनी रेशमी चादर को ओढ़ रखा है। जहां सूती आंचल का कोई मेल नहीं ।

फिर भी हमारे दृष्टि कोण से मां तो सम्पूर्ण ब्र्रह्मांड का शक्ति  रूप् है 

हम सब उसकी शाखाएं हैं व उसी का हिस्सा जिसके हर रूप को हम शक्ति का रूप देते हैं। 

कहां बरगद की वो छांव होगी।

कहां गुजिया की मिठास होगी।

जहां विचारों में छिद्र ही छिद्र,

अब वहां-कहां मां की बात होगी।

जहां एकाकी परिवार , परिवारों का विघटन और बंटते -कटते परिवार ने मां के रूप को ही बदल दिया है।जहां पिता के मृत्योपरांत की दशा बड़ी ही दयनीय होती है। बेटियों का मां के प्रति स्नेह, मां का पुत्र के प्रति स्नेह और पुत्र का ....  वर्तमान व्यवस्था के अनुरूप समय भाव , मां जैसे अनमोल रत्न के बारे में उसकी वैचारिक स्थिति किस ओर जा रही है।  

  एक दिन नहीं, सब दिन। हम उसी को ही मानंे जहां लालित्यता का बालपन और किशोरावस्था की डांट हो , जहां वयस्कता में हम उसके पांव को चूमे जो मेरी /तेरी  माँ है... नहीं मां सिर्फ मां है। 

लेखिका-

अलका अस्थाना ‘अमृतमयी’ 

लखनऊ, उत्तर प्रदेश, भारत

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Milan Tomic

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