विज्ञान की प्रगति हमारे लिए जहां सुख के संसाधनों को उपलब्ध कराती है वहीं घातक भी होती है , हर चीज के दो पहलू होते हैं , फायदा- नुकसान ये दोनों परस्पर विरोधी होने के साथ साथ एक ही जगह पर रहते हैं , अविष्कार जहां सुविधा देता है वहीं कुछ न कुछ हमारा बड़ा नुक़सान भी करता है , वन जो मानसून कारक होते हैं ,यदि उनकी कटाई अत्यधिक हो गई तो हमारे पर्वतीय क्षेत्रों में पहाड़ दरकना , जल प्रलय या फिर जानवरों की संख्या कम होना ये सब परिणाम रूप में सामनें आते हैं जिससे , खाद्य श्रृंखला प्रभावित होनें के कारण आयुर्वेदिक औषधियों की कमी , और संग संग शुद्ध वायु जो हमारी प्राण आधार है, कहीं न कहीं बाधित होती है, अत्यधिक कंक्रीट जंगलों के निर्माण से हम सुविधा हेतु आधुनिक संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे जिसके कारण वायुमंडल प्रदूषित हो रहा वातावरण में आक्सीजन का लेवल घट रहा और मनुष्य को खुलकर सांस लेने के लिए वैज्ञानिक उपकरणों का सहारा लेना पड़ रहा|
गत दो तीन वर्षों पूर्व कोरोना विषाणु पूरे एशिया में अपना पाव पसार कर लोगों को संक्रमित कर चुका है , जिस शरीरकी रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता ठीक ठाक है वो प्राणी थोड़े उपचार बचाव और थोड़ा अपनें को अलग थलग कर आराम कर औषधियों का प्रयोग कर स्वस्थ हो जाते थे, किंतु भूल वश जरा सी असावधानी में दूसरे उनसे संक्रमित हो इस विषाणु का फैलाव कर रहे , और जिस भी मनुष्य की रोगों से लड़ पानें की क्षमता थोड़ी भी कम है वो इस विषाणु के चपेट में आकर मृत्यु का ग्रास बन गये, या फिर रोग ठीक हो जानें के बाद उनके फेफड़े , गुर्दे, या हृदय ठीक प्रकार से काम नहीं कर पा रहे।अकसर देखा गया है और इतिहास के अनुसार प्रत्येक सौ वर्षों में एक भयंकर महामारी धरती पर अवश्य जन्म लेती है और समय समय पर कुपित प्रकृति अपना विकराल रूप धारण कर विनाश पर तुल जाती है| इन सब कारणों के पीछे हमारे विज्ञान का दुर- उपयोग है, मानव कभी लालच वश या अहम और सशक्त हो ऊंचा उठने हेतु जब जब विज्ञान का सहारा ले गलत उपयोग करता है तो दुष्परिणाम भयावह होता है, ऐसा ही इस कोरोना त्रासदी में भी हुआ , पड़ोसी देश नें अन्य मुल्कों को परेशान करनें और अपना रौब दिखाने हेतु प्रयोगशाला में कोरोना विषाणु को और सशक्त बनाकर संक्रमण फैला दिया जिससे आज सभी प्रगतिशील देश इसकी चपेट में आकर उनकी अर्थव्यवस्था और प्रगति की रफ्तार धीमी हो गई सो अलग। संक्रमण से पीड़ित हो व्यक्ति परेशान हो रहे थे और प्राण गंवा रहे थे | ये केवल प्रतिस्पर्धा और अधर्म का घृणित कार्य है जिसकी अग्नि में अच्छे अच्छे देश जले ,या यूं कहें कि विज्ञान का गलत इस्तेमाल कर जैविक युद्ध हो रहा जिसमें कमजोर देश गर्त में चले गये।
हमारा भारत देश आदि काल से ही आयुर्वेद चिकित्सा और योग क्रियाओं से सभी को रोगमुक्त करने के प्रयास में रहा है , भारत की जलवायु ऐसी है कि यहां ऋतुयें अपनी निश्चित अवधि में आती और जाती हैं फलस्वरूप यहां का मौसम और जलवायु दोनों मानव जीवन के रहने के अनुकूल रहता है, यही कारण है कि यहां पैदा हुए लोगों महान पराक्रमी, बलशाली और बुद्धिमान होते हैं , तीनों विषुवत रेखाओं के मध्य स्थित होने से यहां की भौगोलिक परिस्थितियां बेहद सुदृढ़ रहती हैं , सभी वेद पुराणों और ग्रंथों की रचना यहीं ऋषि मुनि लोग प्रकृति की गोद में बैठ कर किये हैं, सभी प्रमुख देवी-देवताओं नें भारत भूमि पर ही अपनीं लीला रची है ,भौगोलिक परिस्थितियां सुदृढ़ होनें और वैदिक काल से ही आयुर्वेद की महत्ता को ध्यान में रखते हुए औषधियों का सेवन करनें के कारण ही आज भारत कोरोना वाइरस व अन्य कई प्रकार के संक्रामक के भीषण चपेट में आने पर भी कम मृत्यु दर और अधिक से अधिक लोग इन भीषण बीमारियों से ग्रसित हो कर भी स्वस्थ हुए हैं, यह हमारे संस्कार और योग और संयमित जीवन शैली का ही परिणाम है, किंतु जो लोग पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते हुए बिना मौसम के आहार का सेवन एवं विदेशी व्यंजनों का व पेय पदार्थों का सेवन कर अनियमित दिनचर्या जी रहे थे , वो मधुमेह, व रक्तचाप, तथा अन्य कई बीमारियों से ग्रसित थे , उन्हें कोरोना की मार मंहगी पड़ी| "दो गज की सामाजिक दूरी, और चेहरे पर अंगौछा या कपड़े का मुख आवरण तथा डिजिटल माध्यम का प्रयोग कर जो लोग कोरोना नियम के हिसाब से संयम बरते वो स्वस्थ रहे | विषाणु कभी मरते नहीं हां विषम परिस्थितियों में कमजोर जरूर हो जाते हैं , और इस कोरोना वाइरस को तो प्रयोगशाला में और भी सशक्त बनाकर संक्रमण फैलाया गया है , अतः पूरा विश्व इसकी चपेट में हो गया था , जन मानस की दिनचर्या और दुनिया थम गई थी, कामकाजी लोग घर बैठनें पर मजबूर थे,,ऋतु परिवर्तन और मानव शरीरों में परिवहन के जरिए यह वाइरस अपना आकार प्रकार बदल कर लोगों को प्रभावित कर रहा , संक्रामक ज्वर का रुप ले यह लोगों के फेफड़ों और अन्य महत्वपूर्ण अंगों को प्रभावित कर रोगी बना दे रहा , या फेफड़ों में संक्रमण फैला कर प्राण वायु आक्सीजन को कम कर दे रहा फलस्वरूप लोगों को सांस लेने में तकलीफ हो रही और दम घुटने से असमय ही लोगों के प्राण निकल रहे , इसका सबसे बड़ा कारण एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में प्रवेश कर यह अपनें आप को और मजबूत कर रहा , छूनें और हवा में वाइरस के छींक और बोलनें से निकली भाप द्वारा यह विषाणु दूर दूर तक फैल जा रहा , मौसम में बदलाव से यह म्यूटेशन के जरिए म्यूटेट होकर खतरनाक स्थिति पैदा कर देता है,जिससे आक्सीजन का स्तर शरीर में निम्न हो जाता है और जानपर आफत बन जाती है।|यद्यपि सरकार और राज्यों तथा विदेशों से आपस में एक दूसरे की मदद कर इस तरह की भयावह बीमारियों से पूरा विश्व जंग लड़ा , और जीता भी , वैक्सीन, दवाईयां , आक्सीजन सिलेंडर व आक्सीजन प्लांट लगा कर सरकारें अपनें देशवासियों की जानों को बचाने का पूरा प्रयास कर जन मानस की रक्षा कर पाईं, और इसकी कारगर दवाईयां भी आयुर्वेद और होम्योपैथ, और एलोपैथ में खोज ली गईं , कुछ दवाएं शत प्रतिशत कामयाब भी हुई वाइरस को खत्म करने में , फिर भी संक्रमण से बचने के लिए आवश्यक सावधानी बरतना जरूरी था, वो सभी हिदायतों का पालन कर आज हम महामारियों से लड़ने में सफल हुए हैं।
इन सब विपत्तियो का जिम्मेदार दार कहीं न कहीं मनुष्य स्वयं है , आज वह उधार की प्राण वायु से अपनें प्राण बचाने की जद्दोजहद करता ये भूल रहा कि इतनें वर्षों सेजो बोया ही वही काट रहा ,ऐशो आराम , आधुनिकता एवं विकास के नाम पर जंगलों का सफाया कर तो दिया , पर अब आक्सीजन की किल्लत झेल रहा , पर्यावरण को बचाये रखनें वाले पेड़ों को निस्तनाबूत कर आज सांस के लिए तरस रहा , साधारणतया पेड़ दिन में आक्सीजन छोड़ते हैं जो वातावरण में घुल कर हवा को शुद्ध बनाती है और हम सांस लेकर आक्सीजन ग्रहण करते हैं, और कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकालते हैं तो वही कार्बन डाइऑक्साइड पेड़ों द्वारा अवशोषित कर ली जाती है जबकि रात में पेड़ उल्टी प्रक्रिया करते हैं केवल पीपल और कुछ एक वनस्पतियों को छोड़कर , इसी वजह से रात में पेड़ों के नीचे नहीं सोना चाहिए, किंतु यह सब परम्परा गांव में ही संभव क्योंकि वहां बाग बगीचे , खेत खलिहान होते हैं, शहर में तो ऊंची ऊंची इमारतें, कल कारखाने ही होते हैं और आजकल तो विज्ञान की तरक्की से बडे बड़े शापिंग मॉल और फूड प्लाजा वगेरह बन गये जिसमें और हमारे घरों कालोनियों में लगे एअर कंडीशन वगेरह भारी मात्रा में प्रदूषण फैला रहे , जब तक हम इमारत के भीतर हैं तब तक सांस ढंग से आ रही किंतु बाहर आने पर प्रदूषित वायु फेफड़ों का दम घोंट रही , बड़ी बड़ी सड़कें बनकर दूर दूर तक के तालाब बगानों का सफाया कर चमचमा रहीं किंतु उनसे उठती भीषण गर्मी असहनीय हो जाती है और हम अपनी अपनी सवारियों के ए.सी चलाकर और वातावरण में जहर घोल रहे | यद्यपि हमारी सरकारें पर्यावरण के प्रति सदैव जागरूक रही है , भारी संख्या में सड़कों के किनारे पौधों को रोपित कर रास्ते को हरा भरा करनें का प्रयास किया जा रहा , किंतु केवल रोपित करना ही जिम्मेदारी नहीं है , उनका उचित पोषण भी जरूरी है ,इस समस्या पर कई बार पर्यावरण प्रेमियों के चेताने पर सम्बंधित अधिकारियों में जागरूकता आई है और पौधों की देखभाल कर उन्हें वृक्ष का रूप धारण करनें मे भरसक प्रयास हो रहा | किंतु क्या यह केवल सरकार की ही जिम्मेदारी है, हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं ? हम अपना कर्तव्य भूल गए हैं, और यह भी भूल गये कि "एक वृक्ष सौ पुत्रों के समान होता है" "हमारी वसुधा का श्रृंगार वृक्ष ही हैं", यदि हम प्रकृति के विपरीत कार्य करेंगे तो निश्चित ही कुपित प्रकृति हमें बदले में महामारी , व अप्राकृतिक घटनाओं का तोहफा ही देगी | "यदि एक वृक्ष कटता है तो कितनें परिंदों का घर उजड़ता है," हमारी यह जिम्मेदारी होनीं चाहिए कि" हम एक वृक्ष काटें, तो दस पौधे अवश्य रोपित कर उनकी देखभाल करें अन्यथा हम सब काट लेंगे तो हमारी अगली पीढ़ी लकड़ी, फल , और भी अन्य आवश्यक वस्तुएं जो पेड़ पौधों से ही मिलती हैं उन सब के लिए तरस जायेगी | हम अपनें घरों में फल फूल के पेड़ पौधे लगाएऔर छतों की बालकनियों में गमलों में ही सही पौधे अवश्य लगाएं ताकि उनसे हमें शुद्ध ताजी हवा मिल सके , घर के बाहर पार्कों , व मैदानों में भी वृक्ष लगायें और जहां तक संभव हो फल वाले वृक्ष लगाये ताकि पेड़ का हर भाग हमारे लिए काम आये , और यह काम हमें मिल जुल कर करना होगा ,"आज की भयावह स्थिति और दम घुटते जीवन के लिए हमारा प्रकृति का आदर करना और पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लेकर उसपयर निष्ठा से अमल कर इस त्रासदी को रोकनें में महत्वपूर्ण होगा ।
अतः आईये सब संकल्पित मन से लौंटें हम प्रकृति की ओर"
डॉ कुमुद श्रीवास्तव वर्मा कुमुदिनी पारा लखनऊ
"पर्यावरण मित्र मंडल संरक्षिका मेजा प्रयाग राज"
सह सचिव साहित्य संगम संस्थान इंदौर, महिला प्रकोष्ठ सचिव युगधारा फाउन्डेशन,
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